खबर लहरिया जवानी दीवानी सूफी कव्वाली का लुत्फ़ उठाएं, मिलिए मुरादाबाद के शादाब से

सूफी कव्वाली का लुत्फ़ उठाएं, मिलिए मुरादाबाद के शादाब से

जिला मुरादाबाद, कस्बा कुन्दरकी, 15 दिसम्बर 2016। खुदा जब दुख देता हैं, तो उसे हटाने के रास्ते भी दिखा देता है। ऐसा ही कुछ हुआ हैं मुरादाबाद के कुन्दरकी कस्बे के रहने वाले 23 साल के शादाब के साथ। शादाब 8 साल की उम्र से सूफी कव्वाली गा रहे हैं और उनकी सूफी कव्वाली सुनने के लिए श्रोतागन  उन्हें चेन्नई, डारजीलिंग और नेपाल तक से बुलाते हैं।

पर आज से 15 साल पहले उनकी परिवारिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनके वालिद हफीज़ अहमद का कारोबार बिलकुल ठप हो गया था। तब पिता ने अपने 6 बेटों में से 5वे नम्बर के शादाब को कव्वाली सीखने का काम शुरू किया। धीरे-धीरे बेटे की कव्वाली से कमाए पैसों से घर चलने लगा। शादाब अपनी आर्थिक तंगी के दौर में कच्चे मकान में रहते थे, जिसकी छत बारिश के दिनों में टपककर घर में भी उतना ही पानी भर देती थी, जितना बाहर पानी होता था। पर आज जब वह अच्छा कमा लेते हैं, तो उनका घर पक्का और आधुनिक सुविधाओं से लैस हो चुका है।

उनकी कव्वाली बुर्जगानदीन से जुड़ी होती हैं। शादाब पढ़े-लिखे नहीं हैं, पर उन्हें अपनी कव्वाली के हर नगम एक बार सुनने के बाद हिब्ज हो जाती हैं। जिसे शादाब अल्हा ताला का कर्म मानते हैं।

उनके परिवार में कव्वाली गाने का काम दादा के जमाने से चला आ रहा है, जो उनके वालिद के बाद वह कर रहे हैं। पतली कदकठी के आधुनिक से देखने वाले शादाब कव्वाली के मंच में पूरे एक मझे हुए कव्वाल लगते हैं। शादाब को अपने परिवार से इस कला को जीवित रखने के लिए बहुत सहयोग और प्यार मिलता है। शादाब अपने कव्वाली के अभी तक के सफर में आने वाली चुनौती के बारे में बताते हैं, “अपने सीनियर कलाकारों के सामने मैं थोड़ा सा घबरा जाता हूं। पर मेरा उसूल हैं कि मैं जब तक वुज़ू नहीं कर लेता हूं, तब तक मैं महफिल में नहीं बैठ़ता हूं। वुज़ू करने के साथ ही मैं अपनी अम्मी को फोन करके बताता हूं कि मैं महफिल में जा रहा हूं। अल्हा और अम्मी की दुआ से मैं अब तक की सब चुनौतियों को जीतकर ही आया हूं।

रिपोर्टर- नाजनी

13/12/2016 को प्रकाशित