खबर लहरिया औरतें काम पर शालूबाई को सरपंच कुर्सी मिली पर मेज़ ना मिल सकी

शालूबाई को सरपंच कुर्सी मिली पर मेज़ ना मिल सकी

 फोटो साभार: नमिता वाईकर

फोटो साभार: नमिता वाईकर

महाराष्ट्र के ओस्मानाबाद जिले के वघोली गांव की मांग जाति की एक दलित महिला के छोटे से प्रयास के कारण यहाँ एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है।
2011 में शालूबाई 44 साल की थीं जब उन्होंने सरपंच का चुनाव जीता। सरपंच बनने के बाद वघोली गाँव के लड़कों ने कार्यालय में छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा लाकर रख दी। लेकिन वहां इसको रखने के लिए कोई उचित स्थान नहीं था। ऐसे में शालूबाई ने अपनी मेज़ प्रतिमा रखने के लिए दे दी और अगले पांच सालों तक कुर्सी पर बैठ कर ही सरपंच होने के सभी कार्य किये।
वह दो घंटे के लिए रोज़ाना अपने पंचायत कार्यलय में जाती थीं। उन्होंने अपने कार्यलय में सभी दलित विचारकों की तस्वीरें भी लगवाई है।
उनके सहायक सतीश खांडके ने जब यह चुनाव उन्हें लड़ने को कहा तब उनके पति और दोनों बेटों ने उन्हें चुनाव लड़ने से मना किया। उनका कहना था कि उनके चुनाव लड़ने से कुछ नया नहीं होगा, तो क्या फायदा?
चुनाव से पहले मांग जाति के लोग अपने दलित विचारकों की बरसी नहीं मना पाते थे लेकिन शालूबाई के सरपंच बनने के बाद, आने वाली हर 1 अगस्त को लोगों ने जुलूस निकाल कर बरसी मानना शुरू की।
ग्रामसभा मंदिरों में भी आयोजित की जाती थी इसलिए शालू मंदिर में भी जाया करती थीं। लेकिन उन्हें मंदिर के अंदर जाने की मनाही थी। लेकिन शालूबाई के सरपंच बनने के बाद जब वह भी मंदिर में गयी तब बाकी सरपंचों ने उन्हें मंदिर में आने का आग्रह किया और उसके बाद ही सभी मांग जाति के लोग मंदिरों में जाने लगे।
शालूबाई ‘बीपीएल’ (गरीबी रेखा से नीचे) में नहीं आती इसलिए उनके पास घर भी नहीं है। वह टीन को चारों तरफ से खड़ा करके बनाये घर में रहती हैं। शालूबाई सोचती थीं कि जब वो सरपंच बनेगी तो उनके बेटे को भी नौकरी मिल जाएगी पर ऐसा हुआ नहीं और वो भी खेतों में मजदूरी ही करता था। शालूबाई कहती हैं, वो सरपंच रही लेकिन वो एक गरीब, भूमिहीन और आर्थिक रूप से कमजोर ही रहीं। उनके सरपंच बनने से भले ही समाज कुछ बदलाव आये हो मगर निजी तौर पर उनके कोई फायदे नहीं हुए।

साभार: पारी