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दलित छात्रों की आत्महत्याओं पर किया गया अध्ययन

mahela mudda DivyaTrivedi (1)दिव्या त्रिवेदी दिल्ली आधारित पत्रकार हैं। यह खबर पहले रुट्स ब्लाॅग में छपा था।भारत में उच्च शैक्षिक संस्थानों में दलितों छात्रों की आत्महत्याओं को लेकर आई प्रतिक्रियाओं के अध्ययन से जातिवादी समाज की चिन्ताजनक तस्वीर सामने आई है। सिर्फ सरकार ने ही नहीं मगर कॉलेज प्रबंधन, पुलिस, स्वास्थ्य प्रणाली और उन्होंने जो सरकार का हिस्सा नहीं है (जैसे मीडिया और समाज) पिछले दशक में हुई 25-30 ऐसी आत्महत्याओं के प्रति भेदभावपूर्ण और समस्याजनक प्रतिक्रिया दिखाई।
आत्महत्या के फौरन बाद हालांकि कोशिश मामले को दबा देने की रहती है। फिर भी एक बार कॉलेज ये मान लेता है कि आत्महत्या हुई है, तो उसके बाद शुरू होती है मृतक के परिवारवालों की सच को सामने लाने के लिए लम्बी लड़ाई। ऐसा ही एक मामला आईआईटी बॉम्बे का है। सितम्बर 2014 में 22 साल का अनिकेत अंभोरे अपने हॉस्टल में मरा पाया गया। शुरू में संस्थान द्वारा इस मामले को दुर्घटना के रूप में रफा दफा करने की कोशिश की गई। जब जांच कमिटी बैठाई गई तो कैंपस के लोगों को नहीं बताया गया न ही उसके जान पहचान के लोगों से बात की गई। कैंपस में संस्थात्मक भेदभाव को समझाते हुए दलित छात्रों के समूह के सदस्य क्रांति कुमार कहते हैं, ‘‘जिन छात्रों का बैकलॉग उन्हें अकैडमिक रिहैबिलिटेशन प्रोग्राम – एआरपी में भर्ती कर दिया जाता है। यहां कुछ का डिप्रेशन के लिए इलाज किया जाता है और एंटी डिप्रेसेंट दवाइयां खिलाई जाती हैं।
एआरपी में ज़्यादातर दलित होते हैं जिन्हे  ऐसा अहसास दिलाया जाता है कि वे आईआईटी में आने के लायक नहीं थे। अनिकेत को एआरपी में भर्ती कर दिया गया था और वो पढ़ाई में कैसा रहेगा इसको लेकर चिंतित था। उसके द्वारा अपने सुपरवाइज़र को लिखी गई चिठ्ठी से ये बात पता चलती है। जुलाई 2015 में हरियाणा के बी.टेक के एक छात्र ने केमिकल पी कर आत्महत्या कर ली। वो बैकलाग, एआरपी, डिप्रेशन का शिकार बना। इसी साल एक केमिकल इंजीनियरिंग छात्र और एक 23 साल के एर्थ साइंस के छात्र ने आत्महत्या करने की कोशिश की। इन मृत्युओं में समान बात ये कि डिप्रेशन के कारण होने वाली मृत्युओं का दर्जा दे दिया गया।
उन्होंने कहने की कोशिश की कि अनिकेत डिप्रेस्ड था। श्रीकांत मालपुला जिसने 2007 में आईआईटी, बॉम्बे में आत्महत्या कर ली वो डिप्रेस्ड था। कालेज प्रबंधन ही नहीं बल्कि मीडिया भी दलितों द्वारा की गई आत्महत्याओं पर डिप्रेशन का ठप्पा लगाने से नहीं चूकता।